2 सितंबर मसूरी गोलीकांड ,उत्तराखंड आंदोलन का दर्दनाक इतिहास और अधूरे सपने-
2 सितंबर 1994: एक त्रासदी जिसने बदली उत्तराखंड की दिशा
31 साल पहले, 2 सितंबर 1994 को मसूरी की खूबसूरत वादियों में एक ऐसी घटना घटी, जिसने उत्तराखंड राज्य आंदोलन को नया मोड़ दिया। उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर शांतिपूर्ण रैली निकाल रहे आंदोलनकारियों पर पुलिस ने अचानक गोलियां चला दीं। इस गोलीकांड में 6 आंदोलनकारी—मदन मोहन ममगाईं, हंसा धनाई, बेलमती चौहान, बलवीर नेगी, धनपत सिंह, और राय सिंह बंगारी—शहीद हो गए, जिनमें दो महिलाएं भी थीं। एक पुलिसकर्मी की भी जान गई। यह घटना उत्तराखंड आंदोलन का एक निर्णायक क्षण बनी, जिसने अलग राज्य की मांग को और तेज कर दिया। लेकिन तीन दशक बाद भी आंदोलनकारी मानते हैं कि शहीदों के सपनों का उत्तराखंड आज भी अधूरा है।
खटीमा से मसूरी तक: खून से लिखा गया संघर्ष
इस त्रासदी से ठीक एक दिन पहले, 1 सितंबर 1994 को खटीमा में भी पुलिस की गोलीबारी में 7 आंदोलनकारी शहीद हुए थे। अगले दिन मसूरी में जब लोग झूलाघर कार्यालय के पास शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे, तब अचानक गोलीबारी शुरू हो गई। इस दमन ने पूरे क्षेत्र में आक्रोश फैला दिया और आंदोलन को और मजबूती दी। मसूरी के हर घर से लोग सड़कों पर उतरे, हर नागरिक आंदोलनकारी बन गया।
राज्य मिला, सपने अधूरे
लंबे संघर्ष के बाद 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ। लेकिन आंदोलनकारी कहते हैं कि जिन उद्देश्यों के लिए यह लड़ाई लड़ी गई थी—पलायन रोकना, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, और ग्रामीण विकास—वे आज भी अधूरे हैं।
31 साल पहले, 2 सितंबर 1994 को मसूरी की खूबसूरत वादियों में एक ऐसी घटना घटी, जिसने उत्तराखंड राज्य आंदोलन को नया मोड़ दिया। उत्तराखंड राज्य की मांग को लेकर शांतिपूर्ण रैली निकाल रहे आंदोलनकारियों पर पुलिस ने अचानक गोलियां चला दीं। इस गोलीकांड में 6 आंदोलनकारी—मदन मोहन ममगाईं, हंसा धनाई, बेलमती चौहान, बलवीर नेगी, धनपत सिंह, और राय सिंह बंगारी—शहीद हो गए, जिनमें दो महिलाएं भी थीं। एक पुलिसकर्मी की भी जान गई। यह घटना उत्तराखंड आंदोलन का एक निर्णायक क्षण बनी, जिसने अलग राज्य की मांग को और तेज कर दिया। लेकिन तीन दशक बाद भी आंदोलनकारी मानते हैं कि शहीदों के सपनों का उत्तराखंड आज भी अधूरा है।
खटीमा से मसूरी तक: खून से लिखा गया संघर्ष
इस त्रासदी से ठीक एक दिन पहले, 1 सितंबर 1994 को खटीमा में भी पुलिस की गोलीबारी में 7 आंदोलनकारी शहीद हुए थे। अगले दिन मसूरी में जब लोग झूलाघर कार्यालय के पास शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे, तब अचानक गोलीबारी शुरू हो गई। इस दमन ने पूरे क्षेत्र में आक्रोश फैला दिया और आंदोलन को और मजबूती दी। मसूरी के हर घर से लोग सड़कों पर उतरे, हर नागरिक आंदोलनकारी बन गया।
राज्य मिला, सपने अधूरे
लंबे संघर्ष के बाद 9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ। लेकिन आंदोलनकारी कहते हैं कि जिन उद्देश्यों के लिए यह लड़ाई लड़ी गई थी—पलायन रोकना, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, और ग्रामीण विकास—वे आज भी अधूरे हैं।
- पलायन का दंश: पहाड़ी गांव खाली हो रहे हैं, युवा रोजगार के लिए मैदानों की ओर पलायन कर रहे हैं।
- बेरोजगारी और बदहाल सेवाएं: बेरोजगारी चरम पर है, स्वास्थ्य सेवाएं अपर्याप्त हैं, और स्कूल बंद हो रहे हैं।
- माफिया और भ्रष्टाचार: खनन और भूमि माफिया का बोलबाला है, भ्रष्टाचार बेलगाम है।
- आंदोलनकारियों की उपेक्षा: कई आंदोलनकारी आज भी गैर-चिन्हित हैं, उन्हें सम्मानजनक पेंशन नहीं मिली। कुछ को झूठे मुकदमों और कोर्ट केसों का सामना करना पड़ रहा है।
- क्षैतिज आरक्षण का अटका मुद्दा: हाल में पास हुआ क्षैतिज आरक्षण का प्रस्ताव कोर्ट में चुनौती के कारण लागू नहीं हो सका।
"हमने राज्य मांगा था, माफिया राज नहीं"
मसूरी के निवासी अनिल सिंह अन्नू कहते हैं कि मसूरी अब कंक्रीट का जंगल बन चुका है। सरकारें पहाड़ों को बचाने की बात करती हैं, लेकिन धरातल पर कोई बदलाव नहीं दिखता। मसूरी व्यापार मंडल के महामंत्री जगजीत कुकरेजा बताते हैं कि होम स्टे योजना का लाभ बाहरी लोग उठा रहे हैं, स्थानीय लोगों को लाइसेंस तक नहीं मिलते।राज्य आंदोलनकारी मनमोहन सिंह मल्ल, श्रीपति कंडारी, और भगवती प्रसाद सकलानी, जो गोलीकांड के गवाह थे, कहते हैं कि उस दिन मसूरी का हर नागरिक आंदोलनकारी था। लेकिन आज शहीदों के सपनों की दिशा में कोई ठोस काम नहीं हुआ।
जन-जंगल-जमीन का खोया सपना
आंदोलनकारी देवी गोदियाल और पूरण जुयाल का कहना है कि उत्तराखंड का सपना जन, जंगल, और जमीन के संरक्षण पर टिका था। लेकिन आज न जंगल बचे, न जमीन, और न ही जनता को उचित प्रतिनिधित्व मिला। उत्तराखंड अब एक संवेदनशील विकास मॉडल की जगह महज एक प्रशासनिक इकाई बनकर रह गया है।
श्रद्धांजलि या प्रतीकात्मक राजनीति?
हर साल 2 सितंबर को मसूरी के शहीद स्थल पर श्रद्धांजलि दी जाती है, भाषण होते हैं, मालाएं चढ़ती हैं। लेकिन आंदोलनकारी इसे "प्रतीकात्मक राजनीति" कहते हैं, क्योंकि जमीनी बदलाव अब भी कोसों दूर है।
आंदोलनकारियों की मांगें
मसूरी गोलीकांड उत्तराखंड के इतिहास में एक ऐसी त्रासदी है, जिसने राज्य निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। लेकिन शहीदों के सपनों का उत्तराखंड आज भी अधूरा है। आंदोलनकारियों की मांगें और उनके संघर्ष की गूंज आज भी सरकारों से जवाब मांग रही है। क्या उत्तराखंड कभी वह स्वप्निल राज्य बन पाएगा, जिसके लिए इतना बड़ा बलिदान दिया गया? यह सवाल आज भी अनुत्तरित है।
मसूरी के निवासी अनिल सिंह अन्नू कहते हैं कि मसूरी अब कंक्रीट का जंगल बन चुका है। सरकारें पहाड़ों को बचाने की बात करती हैं, लेकिन धरातल पर कोई बदलाव नहीं दिखता। मसूरी व्यापार मंडल के महामंत्री जगजीत कुकरेजा बताते हैं कि होम स्टे योजना का लाभ बाहरी लोग उठा रहे हैं, स्थानीय लोगों को लाइसेंस तक नहीं मिलते।राज्य आंदोलनकारी मनमोहन सिंह मल्ल, श्रीपति कंडारी, और भगवती प्रसाद सकलानी, जो गोलीकांड के गवाह थे, कहते हैं कि उस दिन मसूरी का हर नागरिक आंदोलनकारी था। लेकिन आज शहीदों के सपनों की दिशा में कोई ठोस काम नहीं हुआ।
जन-जंगल-जमीन का खोया सपना
आंदोलनकारी देवी गोदियाल और पूरण जुयाल का कहना है कि उत्तराखंड का सपना जन, जंगल, और जमीन के संरक्षण पर टिका था। लेकिन आज न जंगल बचे, न जमीन, और न ही जनता को उचित प्रतिनिधित्व मिला। उत्तराखंड अब एक संवेदनशील विकास मॉडल की जगह महज एक प्रशासनिक इकाई बनकर रह गया है।
श्रद्धांजलि या प्रतीकात्मक राजनीति?
हर साल 2 सितंबर को मसूरी के शहीद स्थल पर श्रद्धांजलि दी जाती है, भाषण होते हैं, मालाएं चढ़ती हैं। लेकिन आंदोलनकारी इसे "प्रतीकात्मक राजनीति" कहते हैं, क्योंकि जमीनी बदलाव अब भी कोसों दूर है।
आंदोलनकारियों की मांगें
- चिन्हीकरण प्रक्रिया: सभी आंदोलनकारियों का चिन्हीकरण जल्द पूरा हो।
- क्षैतिज आरक्षण: कोर्ट में प्रभावी पैरवी के साथ इसे लागू किया जाए।
- पेंशन और सम्मान: आंदोलनकारियों को सम्मानजनक पेंशन और झूठे मुकदमों से मुक्ति।
- स्थानीय प्राथमिकता: योजनाओं में स्थानीय लोगों को प्राथमिकता।
- विकास: गांवों में शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार के अवसर बढ़ाए जाएं।
मसूरी गोलीकांड उत्तराखंड के इतिहास में एक ऐसी त्रासदी है, जिसने राज्य निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। लेकिन शहीदों के सपनों का उत्तराखंड आज भी अधूरा है। आंदोलनकारियों की मांगें और उनके संघर्ष की गूंज आज भी सरकारों से जवाब मांग रही है। क्या उत्तराखंड कभी वह स्वप्निल राज्य बन पाएगा, जिसके लिए इतना बड़ा बलिदान दिया गया? यह सवाल आज भी अनुत्तरित है।
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